
LLB 3rd Semester Notes in Hindi PDF
LLB 3rd Semester Notes in Hindi PDF: इस पेज पर एल.एल.बी (बैचलर ऑफ लॉ) तृतीय सेमेस्टर के छात्रों के लिए नोट्स हिंदी भाषा में उपलब्ध हैं। यह नोट्स NEP-2020 (लेटेस्ट सिलेबस) पर आधारित हैं।
- Unit I: Concepts of Constitution (संविधान की अवधारणाएँ)
- Unit II: Making of Indian Constitution (भारतीय संविधान का निर्माण)
- Unit III: Features of Indian Constitution (भारतीय संविधान की विशेषताएँ)
- Unit IV: Fundamental Rights (मौलिक अधिकार)
- Unit V: Directive Principles of State Policy (राज्य के नीति निदेशक तत्व)
- Unit VI: Role of the Judiciary (न्यायपालिका की भूमिका)
- Unit VII: Federalism, Executive, Legislative and Financial Relations (संघवाद, कार्यपालिका, विधायिका और वित्तीय संबंध)
- Unit VIII: Emerging Issues (उभरते हुए मुद्दे)
तृतीय सेमेस्टर में “Introduction to Indian Constitution” पेपर पढ़ाया जाता है। इस पेपर के अंतर्गत भारतीय संविधान की संरचना, विशेषताएँ, मौलिक अधिकार, नीति निदेशक तत्व, न्यायपालिका की भूमिका और संघवाद जैसे महत्वपूर्ण विषयों का अध्ययन किया जाता है।
LLB 3rd Semester Syllabus in Hindi
इस सेक्शन में तृतीय सेमेस्टर के सिलेबस के बारे में संक्षिप्त जानकारी दी गई है, जैसे कि इस सेमेस्टर में कौन-कौन से टॉपिक कवर किए गए हैं।
I. संविधान की अवधारणाएँ
- संविधान की परिभाषा और महत्व
- संवैधानिक कानून और संवैधानिकता
- संविधान के विभिन्न मॉडल
- भारतीय संविधान की प्रकृति
II. भारतीय संविधान का निर्माण
- संविधान सभा का गठन, बैठकें और बहस
- संविधान सभा की विभिन्न समितियों की भूमिका
- बी. एन. राव और डॉ. भीमराव अंबेडकर का योगदान
- भारतीय संविधान के स्रोत
III. भारतीय संविधान की विशेषताएँ
- भारतीय संविधान की मुख्य विशेषताएँ
- प्रस्तावना और भारतीय संविधान
IV. मौलिक अधिकार
- मौलिक अधिकार और उनकी श्रेणियाँ
- समानता का अधिकार
- स्वतंत्रता का अधिकार
- शोषण के विरुद्ध अधिकार
- धर्म की स्वतंत्रता का अधिकार
- अल्पसंख्यक शैक्षिक संस्थान स्थापित करने का अधिकार
- संवैधानिक उपचार – मौलिक अधिकारों का प्रवर्तन
- रिट क्षेत्राधिकार
V. राज्य के नीति निदेशक तत्व
- राज्य के नीति निदेशक तत्वों और मौलिक अधिकारों के बीच संबंध
- भारतीय संविधान में निहित मौलिक कर्तव्य
VI. न्यायपालिका की भूमिका
- भारतीय उच्च न्यायालय और सर्वोच्च न्यायालय की शक्तियाँ और कार्य
- न्यायिक स्वतंत्रता और जवाबदेही
- पूर्ण न्याय की स्थापना
- न्यायिक पुनरावलोकन और संवैधानिक संशोधन
- भारतीय संविधान में आपातकालीन प्रावधान
VII. संघवाद, कार्यपालिका, विधायिका और वित्तीय संबंध
- संघवाद की अवधारणा और संघीय संरचना के आवश्यक तत्व
- संघ-राज्य संबंध: कार्यपालिका और प्रशासनिक संबंध
- संघ और राज्य के विधायी एवं कार्यकारी अधिकार
- आधुनिक युग में संघवाद: मुद्दे और चुनौतियाँ
VIII. उभरते हुए मुद्दे
- न्यायिक सक्रियता
- लोक हित याचिका (Public Interest Litigation – PIL)
- लोकस स्टैंडी (Locus Standi) की अवधारणा
LLB 3rd Semester Notes in Hindi
इस सेक्शन में एल.एल.बी. तृतीय सेमेस्टर के छात्रों के लिए सभी यूनिट्स और टॉपिक्स के विस्तृत नोट्स दिए गए हैं।
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Unit I: संविधान की अवधारणाएँ (Concepts of Constitution)
संविधान की परिभाषा और महत्व (Definition and Importance of Constitution)
संविधान (Constitution) किसी भी देश का मूलभूत कानून (Fundamental Law) होता है, जो शासन प्रणाली (Governance System) की रूपरेखा तैयार करता है। यह सरकार की संरचना (Structure of Government), उसके अधिकारों (Powers), कर्तव्यों (Duties) और नागरिकों के अधिकारों (Rights of Citizens) को परिभाषित करता है। संविधान का उद्देश्य लोकतंत्र (Democracy), कानून का शासन (Rule of Law) और न्याय (Justice) सुनिश्चित करना होता है।
संविधान का महत्व (Importance of Constitution):
- न्याय और समानता की गारंटी (Guarantee of Justice and Equality): संविधान सभी नागरिकों को समान अधिकार (Equal Rights) प्रदान करता है और उनके मौलिक अधिकारों (Fundamental Rights) की रक्षा करता है।
- लोकतांत्रिक प्रणाली का आधार (Foundation of Democratic System): यह सरकार की संरचना और दायित्वों (Responsibilities) को निर्धारित करता है, जिससे लोकतांत्रिक व्यवस्था सुचारु रूप से कार्य कर सके।
- संवैधानिक नैतिकता (Constitutional Morality): यह विधायिका (Legislature), कार्यपालिका (Executive) और न्यायपालिका (Judiciary) के अधिकारों और कर्तव्यों को स्पष्ट करता है, जिससे सत्ता का संतुलन (Balance of Power) बना रहे।
- राष्ट्र की एकता और अखंडता (Unity and Integrity of Nation): संविधान विभिन्न समुदायों, संस्कृतियों और राज्यों के बीच समरसता (Harmony) स्थापित करने में मदद करता है।
- न्यायिक समीक्षा (Judicial Review): संविधान न्यायपालिका को यह अधिकार देता है कि वह किसी भी कानून की संवैधानिकता (Constitutionality) की समीक्षा कर सके और असंवैधानिक कानूनों को अमान्य (Invalidate) घोषित कर सके।
संवैधानिक कानून और संवैधानिकता (Constitutional Law and Constitutionalism)
संवैधानिक कानून (Constitutional Law): वह विधि (Law) होती है जो संविधान के नियमों, सिद्धांतों और व्यवस्थाओं से संबंधित होती है। यह विधि सरकार की शक्तियों (Powers of Government) और सीमाओं (Limitations) को निर्धारित करती है। संवैधानिक कानून के अंतर्गत विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका की भूमिका तय की जाती है, जिससे कानून का शासन (Rule of Law) स्थापित हो सके।
संवैधानिकता (Constitutionalism): यह एक राजनीतिक दर्शन (Political Philosophy) है, जो सरकार की शक्तियों को नियंत्रित करने और नागरिकों के अधिकारों की सुरक्षा करने पर बल देता है। संवैधानिकता का अर्थ केवल संविधान का अस्तित्व नहीं है, बल्कि यह सुनिश्चित करना भी है कि सरकार संवैधानिक मूल्यों (Constitutional Values) के अनुरूप कार्य करे।
संवैधानिकता के प्रमुख तत्व (Key Elements of Constitutionalism):
- संविधान की सर्वोच्चता (Supremacy of Constitution): कोई भी कानून संविधान के विरुद्ध नहीं हो सकता।
- विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका का पृथक्करण (Separation of Powers): इन तीनों अंगों के बीच संतुलन बनाए रखना आवश्यक है।
- मौलिक अधिकारों की गारंटी (Guarantee of Fundamental Rights): नागरिकों को स्वतंत्रता (Liberty) और समानता (Equality) का अधिकार प्रदान किया जाता है।
- न्यायिक समीक्षा (Judicial Review): न्यायपालिका को यह अधिकार होता है कि वह संविधान के विरुद्ध बनाए गए कानूनों को रद्द कर सके।
- लोकतांत्रिक शासन और उत्तरदायित्व (Democratic Governance and Accountability): सरकार जनता के प्रति उत्तरदायी (Accountable) होती है और उसे पारदर्शिता (Transparency) बनाए रखनी होती है।
संविधान के विभिन्न मॉडल (Various Models of Constitution)
संविधान को विभिन्न प्रकारों में विभाजित किया जा सकता है, जो इसकी संरचना (Structure) और कार्यप्रणाली (Functioning) को दर्शाते हैं। प्रमुख संवैधानिक मॉडल निम्नलिखित हैं:
संवैधानिक मॉडल (Constitutional Model) | विशेषताएँ (Characteristics) | उदाहरण (Examples) |
---|---|---|
लिखित संविधान (Written Constitution) | संविधान को एक लिखित दस्तावेज (Written Document) के रूप में संकलित किया जाता है। | भारत (India), अमेरिका (USA) |
अलिखित संविधान (Unwritten Constitution) | संविधान के प्रावधान विभिन्न परंपराओं (Conventions), अधिनियमों (Acts) और न्यायिक निर्णयों (Judicial Decisions) में मौजूद होते हैं। | ब्रिटेन (UK) |
लचीला संविधान (Flexible Constitution) | संविधान को साधारण विधायी प्रक्रिया (Ordinary Legislative Process) से संशोधित किया जा सकता है। | ब्रिटेन (UK) |
कठोर संविधान (Rigid Constitution) | संविधान में संशोधन के लिए विशेष प्रक्रिया (Special Procedure) अपनाई जाती है। | भारत (India), अमेरिका (USA) |
संघीय संविधान (Federal Constitution) | संविधान में केंद्र (Centre) और राज्यों (States) के बीच शक्तियों का विभाजन (Division of Powers) किया जाता है। | भारत (India), अमेरिका (USA) |
एकात्मक संविधान (Unitary Constitution) | संपूर्ण सत्ता (Centralized Power) केंद्र सरकार (Central Government) के हाथों में होती है। | फ्रांस (France), ब्रिटेन (UK) |
भारतीय संविधान की प्रकृति (Nature of Indian Constitution)
भारतीय संविधान (Indian Constitution) एक विस्तृत और अद्वितीय संवैधानिक दस्तावेज (Comprehensive and Unique Constitutional Document) है, जिसकी कुछ प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं:
- लिखित संविधान (Written Constitution): यह विश्व का सबसे बड़ा लिखित संविधान है, जिसमें विस्तृत प्रावधान शामिल हैं।
- कठोर और लचीला (Rigid and Flexible): कुछ संशोधन साधारण प्रक्रिया से किए जा सकते हैं, जबकि कुछ के लिए जटिल प्रक्रिया अपनाई जाती है।
- संघीय और एकात्मक विशेषताएँ (Federal and Unitary Features): संविधान संघीय संरचना (Federal Structure) को अपनाता है लेकिन केंद्र को अधिक शक्तियाँ प्रदान करता है।
- मौलिक अधिकार और कर्तव्य (Fundamental Rights and Duties): नागरिकों को अधिकार प्रदान करने के साथ-साथ उनके कर्तव्य भी निर्धारित किए गए हैं।
- संविधान की सर्वोच्चता (Supremacy of Constitution): कोई भी कानून संविधान के विरुद्ध नहीं बनाया जा सकता।
इस प्रकार, भारतीय संविधान लोकतांत्रिक, समावेशी (Inclusive) और विस्तृत संवैधानिक दस्तावेज है, जो भारत की विविधता (Diversity) और एकता (Unity) को संरक्षित करता है।
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Unit II: भारतीय संविधान का निर्माण (Making of the Indian Constitution)
संविधान सभा का गठन, बैठकें और बहस (Formation, Sessions, and Debates of the Constituent Assembly)
भारतीय संविधान का निर्माण एक दीर्घकालिक और विस्तृत प्रक्रिया थी, जिसे संविधान सभा (Constituent Assembly) द्वारा संपन्न किया गया। संविधान सभा का गठन 9 दिसंबर 1946 को हुआ और इसका उद्देश्य एक स्वतंत्र भारत के लिए संविधान का निर्माण करना था।
संविधान सभा का गठन (Formation of the Constituent Assembly):
- संविधान सभा का गठन कैबिनेट मिशन योजना (Cabinet Mission Plan) के तहत हुआ, जिसे ब्रिटिश सरकार ने 1946 में प्रस्तावित किया था।
- इसमें कुल 389 सदस्य थे, जिनमें से 296 निर्वाचित और 93 नामित सदस्य थे।
- भारत विभाजन (Partition of India) के बाद पाकिस्तान अलग हो गया, जिससे संविधान सभा में सदस्यों की संख्या 299 रह गई।
- संविधान सभा में सदस्यों का चयन प्रांतीय विधान सभाओं (Provincial Legislative Assemblies) के माध्यम से हुआ।
संविधान सभा की बैठकें (Sessions of the Constituent Assembly):
- संविधान सभा की पहली बैठक 9 दिसंबर 1946 को हुई, जिसकी अध्यक्षता डॉ. सच्चिदानंद सिन्हा (Dr. Sachchidananda Sinha) ने की।
- 11 दिसंबर 1946 को डॉ. राजेंद्र प्रसाद (Dr. Rajendra Prasad) को स्थायी अध्यक्ष (Permanent President) चुना गया।
- संविधान सभा ने कुल 11 सत्र (Sessions) किए, जिनकी कुल अवधि 2 साल 11 महीने और 18 दिन रही।
- संविधान का अंतिम प्रारूप (Final Draft) 26 नवंबर 1949 को स्वीकार किया गया और 26 जनवरी 1950 को लागू किया गया।
संविधान सभा में बहस (Debates in the Constituent Assembly):
- संविधान सभा में मौलिक अधिकारों (Fundamental Rights), राज्य नीति के निदेशक सिद्धांतों (Directive Principles of State Policy), संघीय ढांचे (Federal Structure) आदि पर व्यापक चर्चा हुई।
- इसमें विभिन्न विचारधाराओं के लोगों ने भाग लिया, जैसे कि डॉ. भीमराव अंबेडकर (Dr. B.R. Ambedkar), जवाहरलाल नेहरू (Jawaharlal Nehru), सरदार वल्लभभाई पटेल (Sardar Vallabhbhai Patel) आदि।
- संविधान सभा की बहसें ‘संविधान सभा वृतांत’ (Constituent Assembly Debates) के रूप में दस्तावेज़बद्ध हैं।
संविधान सभा की विभिन्न समितियों की भूमिका (Role of Various Committees of the Constituent Assembly)
संविधान सभा में विभिन्न समितियों (Committees) का गठन किया गया, ताकि संविधान निर्माण प्रक्रिया को सुचारू रूप से संपन्न किया जा सके।
समिति का नाम (Committee Name) | अध्यक्ष (Chairperson) | कार्य (Function) |
---|---|---|
प्रारूप समिति (Drafting Committee) | डॉ. बी. आर. अंबेडकर (Dr. B.R. Ambedkar) | संविधान का अंतिम प्रारूप तैयार करना। |
संघ शक्ति समिति (Union Powers Committee) | जवाहरलाल नेहरू (Jawaharlal Nehru) | केंद्र और राज्यों के बीच शक्तियों के विभाजन पर निर्णय लेना। |
राज्यों की पुनर्संगठन समिति (Provincial Constitution Committee) | सरदार वल्लभभाई पटेल (Sardar Vallabhbhai Patel) | राज्यों के अधिकारों और उनकी स्वायत्तता पर निर्णय लेना। |
संविधान संबंधी सलाहकार समिति (Advisory Committee on Fundamental Rights) | सरदार वल्लभभाई पटेल (Sardar Vallabhbhai Patel) | मौलिक अधिकारों और अल्पसंख्यकों के अधिकारों पर चर्चा करना। |
संघीय संविधान समिति (Union Constitution Committee) | जवाहरलाल नेहरू (Jawaharlal Nehru) | संघीय शासन प्रणाली की रूपरेखा तैयार करना। |
बी. एन. राव और डॉ. भीमराव अंबेडकर का योगदान (Contributions of B.N. Rau and Dr. B.R. Ambedkar)
बी. एन. राव (B.N. Rau):
- बी. एन. राव (Benedict Narayan Rau) संविधान सभा के संवैधानिक सलाहकार (Constitutional Advisor) थे।
- उन्होंने विभिन्न देशों के संविधानों का अध्ययन कर भारतीय संविधान का प्रारंभिक मसौदा (Initial Draft) तैयार किया।
- उनकी सलाह के आधार पर विभिन्न संवैधानिक प्रावधानों को संविधान में शामिल किया गया।
डॉ. भीमराव अंबेडकर (Dr. B.R. Ambedkar):
- डॉ. अंबेडकर को संविधान सभा द्वारा प्रारूप समिति (Drafting Committee) का अध्यक्ष चुना गया।
- उन्होंने संविधान में सामाजिक न्याय (Social Justice), समानता (Equality) और मौलिक अधिकारों (Fundamental Rights) को मजबूत बनाने का कार्य किया।
- उनकी भूमिका के कारण उन्हें “भारतीय संविधान का निर्माता” (Architect of the Indian Constitution) कहा जाता है।
भारतीय संविधान के स्रोत (Sources of the Indian Constitution)
भारतीय संविधान विभिन्न देशों के संविधानों से प्रेरित है। इसमें विभिन्न स्रोतों से महत्वपूर्ण प्रावधान लिए गए हैं:
स्रोत (Source) | प्रावधान (Provisions) |
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ब्रिटिश संविधान (British Constitution) | संसदीय प्रणाली (Parliamentary System), कानून का शासन (Rule of Law), एकल नागरिकता (Single Citizenship) |
अमेरिकी संविधान (American Constitution) | मौलिक अधिकार (Fundamental Rights), न्यायिक समीक्षा (Judicial Review), स्वतंत्र न्यायपालिका (Independent Judiciary) |
आयरिश संविधान (Irish Constitution) | राज्य नीति के निदेशक सिद्धांत (Directive Principles of State Policy) |
कनाडाई संविधान (Canadian Constitution) | संघीय प्रणाली (Federal System), केंद्र को अधिक शक्तियाँ |
फ्रांसीसी संविधान (French Constitution) | स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व (Liberty, Equality, Fraternity) |
इस प्रकार, भारतीय संविधान एक समावेशी (Inclusive) और बहुआयामी (Comprehensive) दस्तावेज़ है, जो विभिन्न संवैधानिक परंपराओं का मिश्रण है।
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Unit III: भारतीय संविधान की विशेषताएँ (Features of the Indian Constitution)
भारतीय संविधान की मुख्य विशेषताएँ (Main Features of the Indian Constitution)
भारतीय संविधान (Indian Constitution) दुनिया के सबसे विस्तृत और लचीले संविधानों में से एक है। यह भारतीय समाज की विविधता, लोकतांत्रिक मूल्यों और ऐतिहासिक पृष्ठभूमि को ध्यान में रखते हुए तैयार किया गया है। इसकी कुछ प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं:
1. विश्व का सबसे लंबा लिखित संविधान (Longest Written Constitution)
- भारतीय संविधान विश्व का सबसे लंबा लिखित संविधान है।
- इसमें प्रारंभ में 395 अनुच्छेद (Articles) थे, जो 22 भागों (Parts) और 8 अनुसूचियों (Schedules) में विभाजित थे।
- वर्तमान में इसमें 470 से अधिक अनुच्छेद और 12 अनुसूचियाँ हैं।
2. संघात्मक प्रणाली (Federal System) और एकात्मक प्रवृत्तियाँ (Unitary Features)
- संविधान में भारत को एक संघीय राष्ट्र (Federal Nation) घोषित किया गया है, लेकिन इसमें एकात्मक (Unitary) विशेषताएँ भी हैं।
- संघीय व्यवस्था के अंतर्गत केंद्र और राज्यों के बीच शक्तियों का विभाजन किया गया है।
- तीन सूचियाँ (Lists) बनाई गई हैं:
- संघ सूची (Union List) – केवल केंद्र सरकार कानून बना सकती है।
- राज्य सूची (State List) – केवल राज्य सरकार कानून बना सकती है।
- समवर्ती सूची (Concurrent List) – केंद्र और राज्य दोनों कानून बना सकते हैं।
- आपातकाल (Emergency) के समय केंद्र सरकार को अधिक शक्तियाँ प्राप्त हो जाती हैं, जिससे एकात्मक प्रवृत्ति स्पष्ट होती है।
3. संसदीय प्रणाली (Parliamentary System)
- भारत में ब्रिटेन की तरह संसदीय शासन प्रणाली (Parliamentary System of Government) को अपनाया गया है।
- राष्ट्रपति (President) नाममात्र का प्रमुख (Nominal Head) होता है, जबकि वास्तविक कार्यकारी शक्तियाँ प्रधानमंत्री (Prime Minister) और मंत्रिपरिषद (Council of Ministers) के पास होती हैं।
4. मौलिक अधिकार (Fundamental Rights)
- संविधान के भाग III में नागरिकों को मौलिक अधिकार (Fundamental Rights) प्रदान किए गए हैं।
- ये अधिकार न्यायिक रूप से प्रवर्तनीय (Justiciable) हैं, अर्थात्, इनके उल्लंघन पर व्यक्ति उच्च न्यायालय (High Court) या सर्वोच्च न्यायालय (Supreme Court) में जा सकता है।
5. राज्य के नीति निदेशक सिद्धांत (Directive Principles of State Policy – DPSP)
- संविधान के भाग IV में राज्य के नीति निदेशक सिद्धांतों (DPSP) को शामिल किया गया है।
- ये सरकार को सामाजिक-आर्थिक न्याय (Socio-Economic Justice) और कल्याणकारी राज्य (Welfare State) की स्थापना के लिए मार्गदर्शन प्रदान करते हैं।
- हालांकि, ये सिद्धांत न्यायिक रूप से प्रवर्तनीय नहीं हैं, लेकिन सरकार को इनके पालन का प्रयास करना होता है।
6. मूल कर्तव्य (Fundamental Duties)
- संविधान के 42वें संशोधन (1976) के तहत मूल कर्तव्यों (Fundamental Duties) को जोड़ा गया।
- भारतीय नागरिकों के लिए 11 मौलिक कर्तव्य निर्धारित किए गए हैं, जो देशभक्ति और नागरिक कर्तव्यों पर केंद्रित हैं।
7. न्यायपालिका की स्वतंत्रता (Independence of Judiciary)
- संविधान में एक स्वतंत्र और निष्पक्ष न्यायपालिका (Independent Judiciary) की व्यवस्था की गई है।
- सर्वोच्च न्यायालय (Supreme Court) और उच्च न्यायालय (High Court) को संविधान का संरक्षक माना गया है।
8. संशोधन की प्रक्रिया (Amendment Procedure)
- भारतीय संविधान में संशोधन (Amendment) की प्रक्रिया को लचीला (Flexible) और कठोर (Rigid) दोनों बनाया गया है।
- संविधान के अनुच्छेद 368 के तहत संसद को संविधान में संशोधन करने की शक्ति दी गई है।
9. धर्मनिरपेक्षता (Secularism)
- संविधान में भारत को एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र (Secular Nation) घोषित किया गया है।
- राज्य सभी धर्मों के प्रति समान व्यवहार करता है और किसी विशेष धर्म को बढ़ावा नहीं देता।
10. एकल नागरिकता (Single Citizenship)
- संविधान में अमेरिका की तरह द्वैध नागरिकता (Dual Citizenship) की व्यवस्था नहीं है, बल्कि सभी भारतीयों को एकल नागरिकता (Single Citizenship) प्रदान की गई है।
प्रस्तावना और भारतीय संविधान (Preamble and the Indian Constitution)
संविधान की प्रस्तावना (Preamble) उसके उद्देश्यों और मूल्यों को व्यक्त करती है। यह संविधान की आत्मा (Soul of the Constitution) कही जाती है।
प्रस्तावना में उल्लिखित प्रमुख तत्व:
- संप्रभुता (Sovereignty): भारत एक स्वतंत्र राष्ट्र है और किसी अन्य शक्ति के अधीन नहीं है।
- समाजवाद (Socialism): आर्थिक और सामाजिक समानता को बढ़ावा देना।
- धर्मनिरपेक्षता (Secularism): सभी धर्मों के प्रति समान व्यवहार।
- लोकतंत्र (Democracy): जनता की संप्रभुता को मान्यता देना।
- गणराज्य (Republic): राष्ट्राध्यक्ष (President) का चुनाव जनता द्वारा किया जाता है।
- न्याय (Justice): सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय।
- स्वतंत्रता (Liberty): विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता।
- समानता (Equality): सभी नागरिकों को समान अधिकार।
- बंधुत्व (Fraternity): राष्ट्रीय एकता और अखंडता को बढ़ावा देना।
संविधान की प्रस्तावना भारतीय लोकतंत्र की आधारशिला है और यह भारत को एक संप्रभु, समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक गणराज्य घोषित करती है।
भारतीय संविधान की विशेषताएँ इसे अन्य संविधानों से अलग और विशिष्ट बनाती हैं। इसका मुख्य उद्देश्य भारत में सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय सुनिश्चित करना है।
Unit IV: मौलिक अधिकार (Fundamental Rights)
भारतीय संविधान (Indian Constitution) में नागरिकों को मौलिक अधिकार (Fundamental Rights) प्रदान किए गए हैं, जो उनकी स्वतंत्रता, समानता और गरिमा की रक्षा करते हैं। ये अधिकार संविधान के भाग III में अनुच्छेद 12 से 35 तक विस्तृत हैं। मौलिक अधिकारों को न्यायिक रूप से प्रवर्तनीय (Justiciable) बनाया गया है, जिसका अर्थ है कि इनके उल्लंघन पर व्यक्ति उच्च न्यायालय (High Court) या सर्वोच्च न्यायालय (Supreme Court) में याचिका दायर कर सकता है।
मौलिक अधिकार और उनकी श्रेणियाँ (Fundamental Rights and Their Categories)
भारतीय संविधान में छह प्रकार के मौलिक अधिकार प्रदान किए गए हैं:
- समानता का अधिकार (Right to Equality) – अनुच्छेद 14-18
- स्वतंत्रता का अधिकार (Right to Freedom) – अनुच्छेद 19-22
- शोषण के विरुद्ध अधिकार (Right Against Exploitation) – अनुच्छेद 23-24
- धर्म की स्वतंत्रता का अधिकार (Right to Freedom of Religion) – अनुच्छेद 25-28
- अल्पसंख्यकों को सांस्कृतिक और शैक्षिक अधिकार (Cultural and Educational Rights of Minorities) – अनुच्छेद 29-30
- संवैधानिक उपचारों का अधिकार (Right to Constitutional Remedies) – अनुच्छेद 32
1. समानता का अधिकार (Right to Equality – Articles 14-18)
यह अधिकार सभी नागरिकों को कानून के समक्ष समानता (Equality Before Law) और अवसर की समानता (Equal Opportunity) प्रदान करता है।
- अनुच्छेद 14: सभी नागरिकों को कानून के समक्ष समानता और विधि का समान संरक्षण (Equal Protection of Law) प्राप्त होगा।
- अनुच्छेद 15: धर्म, जाति, लिंग, जन्मस्थान या किसी अन्य आधार पर भेदभाव नहीं किया जाएगा।
- अनुच्छेद 16: सरकारी नौकरियों में अवसर की समानता (Equality of Opportunity) की गारंटी।
- अनुच्छेद 17: अस्पृश्यता (Untouchability) का उन्मूलन और इसे दंडनीय अपराध घोषित करना।
- अनुच्छेद 18: सरकारी कर्मचारियों को उपाधियाँ (Titles) धारण करने से रोकना, जैसे “सर”, “राजा”, आदि।
2. स्वतंत्रता का अधिकार (Right to Freedom – Articles 19-22)
यह अधिकार नागरिकों को विभिन्न स्वतंत्रताओं की गारंटी देता है।
- अनुच्छेद 19: भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता (Freedom of Speech and Expression), शांतिपूर्ण सभा (Peaceful Assembly), संघ बनाने (Association), देश में कहीं भी बसने (Freedom of Movement) और व्यवसाय करने (Freedom of Profession) का अधिकार।
- अनुच्छेद 20: दोषसिद्धि के खिलाफ सुरक्षा (Protection in Conviction) जैसे पूर्वव्यापी दंड (Ex Post Facto Law), दोहरे दंड (Double Jeopardy) और आत्म-दोषारोपण से सुरक्षा (Self-Incrimination)।
- अनुच्छेद 21: जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार (Right to Life and Personal Liberty)।
- अनुच्छेद 21A: 6 से 14 वर्ष के बच्चों के लिए निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा (Right to Education)।
- अनुच्छेद 22: गिरफ्तारी और निरोध से सुरक्षा (Protection Against Arbitrary Arrest and Detention)।
3. शोषण के विरुद्ध अधिकार (Right Against Exploitation – Articles 23-24)
इस अधिकार का उद्देश्य समाज में शोषण (Exploitation) को रोकना है।
- अनुच्छेद 23: मानव तस्करी (Human Trafficking), जबरन श्रम (Forced Labour) और बेगार (Begar) को प्रतिबंधित करना।
- अनुच्छेद 24: 14 वर्ष से कम उम्र के बच्चों को खतरनाक उद्योगों (Hazardous Industries) में काम करने से रोकना।
4. धर्म की स्वतंत्रता का अधिकार (Right to Freedom of Religion – Articles 25-28)
भारत एक धर्मनिरपेक्ष (Secular) राष्ट्र है, इसलिए यह अधिकार सभी नागरिकों को धर्म की स्वतंत्रता प्रदान करता है।
- अनुच्छेद 25: धर्म को मानने, उसका पालन करने और प्रचार करने की स्वतंत्रता।
- अनुच्छेद 26: धार्मिक संस्थाओं (Religious Institutions) के प्रबंधन की स्वतंत्रता।
- अनुच्छेद 27: किसी भी व्यक्ति को किसी विशेष धर्म के प्रचार हेतु कर भुगतान करने के लिए बाध्य नहीं किया जाएगा।
- अनुच्छेद 28: सरकारी सहायता प्राप्त विद्यालयों में धार्मिक शिक्षा (Religious Instruction) नहीं दी जाएगी।
5. अल्पसंख्यक शैक्षिक संस्थान स्थापित करने का अधिकार (Right of Minorities to Establish Educational Institutions – Articles 29-30)
यह अधिकार अल्पसंख्यकों (Minorities) को उनकी सांस्कृतिक और शैक्षिक पहचान की सुरक्षा प्रदान करता है।
- अनुच्छेद 29: किसी भी वर्ग को अपनी भाषा, लिपि और संस्कृति सुरक्षित रखने का अधिकार।
- अनुच्छेद 30: धार्मिक या भाषाई अल्पसंख्यकों (Religious or Linguistic Minorities) को अपने शैक्षिक संस्थान स्थापित करने और उनका प्रशासन करने का अधिकार।
6. संवैधानिक उपचार – मौलिक अधिकारों का प्रवर्तन (Right to Constitutional Remedies – Article 32)
यह अधिकार मौलिक अधिकारों (Fundamental Rights) के उल्लंघन के मामले में न्यायिक संरक्षण प्रदान करता है।
- अनुच्छेद 32: किसी भी व्यक्ति को अपने मौलिक अधिकारों के उल्लंघन की स्थिति में सर्वोच्च न्यायालय में याचिका दायर करने का अधिकार।
रिट क्षेत्राधिकार (Writ Jurisdiction)
संविधान न्यायालयों को नागरिकों के अधिकारों की रक्षा के लिए रिट्स (Writs) जारी करने का अधिकार प्रदान करता है:
- हेबियस कॉर्पस (Habeas Corpus): किसी व्यक्ति की गैर-कानूनी हिरासत को चुनौती देने का अधिकार।
- मैंडमस (Mandamus): किसी सरकारी अधिकारी को अपना वैधानिक कर्तव्य निभाने का आदेश।
- प्रोहिबिशन (Prohibition): अधीनस्थ न्यायालय को न्यायिक प्रक्रिया रोकने का आदेश।
- सर्टियोरारी (Certiorari): उच्च न्यायालय द्वारा अधीनस्थ न्यायालय के फैसले को अमान्य घोषित करना।
- क्यू वारंटो (Quo Warranto): किसी व्यक्ति के अधिकार को चुनौती देना।
Unit V: राज्य के नीति निदेशक तत्व (Directive Principles of State Policy)
भारतीय संविधान (Indian Constitution) में राज्य के नीति निदेशक तत्वों (Directive Principles of State Policy – DPSP) को भाग IV में अनुच्छेद 36 से 51 तक शामिल किया गया है। ये तत्व सरकार को एक कल्याणकारी राज्य (Welfare State) की स्थापना के लिए दिशानिर्देश प्रदान करते हैं। यद्यपि ये तत्व न्यायालयों में प्रवर्तनीय (Non-Justiciable) नहीं हैं, लेकिन सरकार को इन्हें लागू करने का प्रयास करना चाहिए।
राज्य के नीति निदेशक तत्वों का उद्देश्य (Objective of DPSP)
राज्य के नीति निदेशक तत्वों का मुख्य उद्देश्य सामाजिक और आर्थिक न्याय (Social and Economic Justice) को बढ़ावा देना है, जिससे देश में असमानताओं को समाप्त कर समतामूलक समाज (Equalitarian Society) की स्थापना की जा सके। संविधान निर्माताओं ने इन तत्वों को आयरिश संविधान (Irish Constitution) से प्रेरित होकर शामिल किया था।
राज्य के नीति निदेशक तत्वों की प्रमुख श्रेणियाँ (Major Categories of DPSP)
राज्य के नीति निदेशक तत्वों को तीन प्रमुख श्रेणियों में विभाजित किया जा सकता है:
- सामाजिक और आर्थिक नीति से संबंधित तत्व (Social and Economic Principles)
- गांधीवादी तत्व (Gandhian Principles)
- राजनीतिक और प्रशासनिक तत्व (Political and Administrative Principles)
1. सामाजिक और आर्थिक नीति से संबंधित तत्व (Social and Economic Principles)
- अनुच्छेद 38: राज्य को सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय (Justice) को बढ़ावा देना चाहिए और असमानताओं को कम करना चाहिए।
- अनुच्छेद 39: सभी नागरिकों को समान आजीविका के अवसर (Equal Means of Livelihood) प्रदान करना, आर्थिक शक्ति का संकेन्द्रण रोकना, बच्चों और महिलाओं का शोषण रोकना।
- अनुच्छेद 41: बेरोजगारी, बुढ़ापा और विकलांगता की स्थिति में सार्वजनिक सहायता (Public Assistance) प्रदान करना।
- अनुच्छेद 43: श्रमिकों को जीवन स्तर और कार्य की दशाओं में सुधार के लिए सुविधाएँ प्रदान करना।
2. गांधीवादी तत्व (Gandhian Principles)
- अनुच्छेद 40: ग्राम पंचायतों (Village Panchayats) की स्थापना को बढ़ावा देना।
- अनुच्छेद 43: कुटीर उद्योगों (Cottage Industries) के विकास को बढ़ावा देना।
- अनुच्छेद 46: अनुसूचित जाति (Scheduled Castes – SC), अनुसूचित जनजाति (Scheduled Tribes – ST) और अन्य कमजोर वर्गों की रक्षा करना।
- अनुच्छेद 47: शराब (Alcohol) और अन्य नशीले पदार्थों के उपयोग को प्रतिबंधित करना।
3. राजनीतिक और प्रशासनिक तत्व (Political and Administrative Principles)
- अनुच्छेद 44: समान नागरिक संहिता (Uniform Civil Code – UCC) की स्थापना।
- अनुच्छेद 45: 6 से 14 वर्ष के बच्चों के लिए निःशुल्क एवं अनिवार्य शिक्षा (Free and Compulsory Education)।
- अनुच्छेद 48: कृषि और पशुपालन (Agriculture and Animal Husbandry) में सुधार।
- अनुच्छेद 50: कार्यपालिका (Executive) और न्यायपालिका (Judiciary) का पृथक्करण।
राज्य के नीति निदेशक तत्वों और मौलिक अधिकारों के बीच संबंध (Relationship Between DPSP and Fundamental Rights)
मौलिक अधिकार (Fundamental Rights) और राज्य के नीति निदेशक तत्व (DPSP) दोनों ही संविधान के महत्वपूर्ण भाग हैं, लेकिन इनके बीच कुछ प्रमुख अंतर हैं:
आधार | मौलिक अधिकार (Fundamental Rights) | राज्य के नीति निदेशक तत्व (DPSP) |
---|---|---|
प्रवर्तनीयता (Enforceability) | ये न्यायालय द्वारा प्रवर्तनीय होते हैं। | ये न्यायालय द्वारा प्रवर्तनीय नहीं होते। |
उद्देश्य (Objective) | व्यक्तिगत स्वतंत्रता और नागरिक अधिकारों की सुरक्षा। | राज्य को कल्याणकारी राज्य बनाने के लिए निर्देश। |
प्राकृतिक अधिकार (Natural Rights) | ये व्यक्तिगत स्वतंत्रता से संबंधित हैं। | ये सामाजिक और आर्थिक कल्याण पर केंद्रित हैं। |
हालांकि, सुप्रीम कोर्ट (Supreme Court) ने केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य (Keshavananda Bharati vs. State of Kerala, 1973) और मिनर्वा मिल्स बनाम भारत संघ (Minerva Mills vs. Union of India, 1980) के मामलों में स्पष्ट किया कि मौलिक अधिकार और नीति निदेशक तत्वों में संतुलन बनाए रखना आवश्यक है।
भारतीय संविधान में निहित मौलिक कर्तव्य (Fundamental Duties in Indian Constitution)
मौलिक कर्तव्य (Fundamental Duties) भारतीय नागरिकों के लिए नैतिक और नागरिक जिम्मेदारियों को दर्शाते हैं। इन्हें 42वें संविधान संशोधन (42nd Constitutional Amendment, 1976) द्वारा जोड़ा गया था और ये अनुच्छेद 51A में सूचीबद्ध हैं।
भारतीय नागरिकों के 11 मौलिक कर्तव्य निम्नलिखित हैं:
- संविधान और उसके आदर्शों का पालन करना।
- राष्ट्रीय ध्वज और राष्ट्रगान का सम्मान करना।
- भारत की संप्रभुता, एकता और अखंडता की रक्षा करना।
- राष्ट्र की सेवा करना और आह्वान पर देश की रक्षा करना।
- सामाजिक सद्भाव और भ्रातृत्व को बढ़ावा देना।
- हमारी समृद्ध सांस्कृतिक विरासत को संरक्षित करना।
- पर्यावरण की सुरक्षा और सुधार के लिए कार्य करना।
- वैज्ञानिक सोच, मानवतावाद और सुधार की भावना को बढ़ावा देना।
- सार्वजनिक संपत्ति की रक्षा करना और हिंसा से बचना।
- व्यक्तिगत और सामूहिक उत्कृष्टता के प्रयास करना।
- 6 से 14 वर्ष के बच्चों को शिक्षा प्रदान करने के लिए प्रयास करना।
मौलिक कर्तव्यों को संविधान में शामिल करने का उद्देश्य नागरिकों में राष्ट्रीय चेतना (National Consciousness) विकसित करना और उन्हें अपने कर्तव्यों के प्रति जागरूक बनाना है।
Unit VI: न्यायपालिका की भूमिका (Role of Judiciary)
भारतीय लोकतंत्र (Indian Democracy) में न्यायपालिका (Judiciary) एक स्वतंत्र और निष्पक्ष संस्था है, जिसका उद्देश्य संविधान की सर्वोच्चता बनाए रखना और नागरिकों के अधिकारों की रक्षा करना है। यह विधायिका (Legislature) और कार्यपालिका (Executive) से स्वतंत्र होकर कार्य करती है। भारतीय न्यायपालिका का आधार न्यायिक समीक्षा (Judicial Review), संवैधानिक व्याख्या (Constitutional Interpretation), और नागरिक अधिकारों की रक्षा है।
भारतीय उच्च न्यायालय और सर्वोच्च न्यायालय की शक्तियाँ और कार्य (Powers and Functions of High Court and Supreme Court)
भारत में न्यायपालिका तीन स्तरों पर कार्य करती है:
- सर्वोच्च न्यायालय (Supreme Court): संविधान का अंतिम व्याख्याकार (Final Interpreter of Constitution)।
- उच्च न्यायालय (High Court): राज्यों में न्याय प्रदान करने वाली शीर्ष संस्था।
- निचली न्यायपालिका (Lower Judiciary): जिला और सत्र न्यायालयों (District and Session Courts) का समावेश।
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 124 से 147 तक सर्वोच्च न्यायालय (Supreme Court) की शक्तियों और कार्यों को परिभाषित किया गया है। उच्च न्यायालय (High Court) के अधिकार अनुच्छेद 214 से 231 में वर्णित हैं।
न्यायालय | शक्तियाँ और कार्य |
---|---|
सर्वोच्च न्यायालय (Supreme Court) |
|
उच्च न्यायालय (High Court) |
|
न्यायिक स्वतंत्रता और जवाबदेही (Judicial Independence and Accountability)
भारतीय संविधान न्यायपालिका को स्वतंत्र बनाता है ताकि यह निष्पक्ष रूप से कार्य कर सके। न्यायिक स्वतंत्रता (Judicial Independence) सुनिश्चित करने के लिए निम्नलिखित उपाय किए गए हैं:
- न्यायाधीशों की नियुक्ति (Appointment of Judges): न्यायाधीशों की नियुक्ति में कार्यपालिका का सीमित हस्तक्षेप होता है।
- कार्यकाल की सुरक्षा (Security of Tenure): न्यायाधीशों को कार्यकाल की सुरक्षा प्रदान की जाती है ताकि वे स्वतंत्र रूप से निर्णय ले सकें।
- वेतन और भत्ते (Salary and Allowances): न्यायाधीशों के वेतन और सुविधाओं में कार्यपालिका हस्तक्षेप नहीं कर सकती।
- हटाने की प्रक्रिया (Removal Process): न्यायाधीशों को केवल महाभियोग (Impeachment) के माध्यम से हटाया जा सकता है।
हालांकि, न्यायपालिका को जवाबदेह (Accountable) बनाने के लिए कुछ प्रावधान भी किए गए हैं, जैसे कि न्यायाधीशों के विरुद्ध महाभियोग की प्रक्रिया और सुप्रीम कोर्ट द्वारा न्यायिक आचार संहिता (Code of Conduct) का पालन।
पूर्ण न्याय की स्थापना (Ensuring Complete Justice)
अनुच्छेद 142 के तहत, सर्वोच्च न्यायालय को “पूर्ण न्याय” (Complete Justice) करने की शक्ति दी गई है। इसका तात्पर्य यह है कि न्यायालय किसी भी कानूनी बाधा के बिना किसी भी मामले में न्याय प्रदान कर सकता है। यह शक्ति भारतीय न्यायपालिका को अन्य देशों की न्यायपालिका की तुलना में अधिक प्रभावी बनाती है।
न्यायिक पुनरावलोकन और संवैधानिक संशोधन (Judicial Review and Constitutional Amendment)
न्यायिक पुनरावलोकन (Judicial Review) भारतीय संविधान का एक महत्वपूर्ण तत्व है, जिसके अंतर्गत न्यायालय किसी भी कानून या सरकारी आदेश को असंवैधानिक घोषित कर सकता है।
महत्वपूर्ण न्यायिक पुनरावलोकन मामले:
- केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य (1973): इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने “मौलिक संरचना सिद्धांत” (Basic Structure Doctrine) दिया, जिसके तहत संसद संविधान के मौलिक ढांचे को नहीं बदल सकती।
- गोलकनाथ बनाम पंजाब राज्य (1967): सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि संसद मौलिक अधिकारों में संशोधन नहीं कर सकती।
- मिनर्वा मिल्स बनाम भारत संघ (1980): इस मामले में न्यायालय ने कहा कि संसद और कार्यपालिका दोनों को संतुलित शक्ति मिलनी चाहिए।
भारतीय संविधान में आपातकालीन प्रावधान (Emergency Provisions in Indian Constitution)
भारतीय संविधान में अनुच्छेद 352 से 360 तक आपातकालीन प्रावधान (Emergency Provisions) शामिल किए गए हैं।
आपातकाल का प्रकार | संविधान का अनुच्छेद | लागू करने का कारण |
---|---|---|
राष्ट्रीय आपातकाल (National Emergency) | अनुच्छेद 352 | युद्ध, बाहरी आक्रमण या आंतरिक विद्रोह की स्थिति में। |
राज्य आपातकाल (President’s Rule) | अनुच्छेद 356 | संविधान के अनुसार राज्य सरकार न चल पाने की स्थिति में। |
आर्थिक आपातकाल (Financial Emergency) | अनुच्छेद 360 | देश की वित्तीय स्थिरता को खतरा होने की स्थिति में। |
न्यायपालिका इन आपातकालीन प्रावधानों की संवैधानिकता की समीक्षा कर सकती है और किसी भी दुरुपयोग को रोकने के लिए हस्तक्षेप कर सकती है।
इस प्रकार, भारतीय न्यायपालिका संविधान की रक्षा करने और नागरिकों को न्याय दिलाने में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है।
Unit VII: संघवाद, कार्यपालिका, विधायिका और वित्तीय संबंध (Federalism, Executive, Legislature, and Financial Relations)
भारतीय संविधान ने एक अद्वितीय संघीय (Federal) प्रणाली को अपनाया है, जिसमें केंद्र और राज्य के बीच शक्तियों का विभाजन किया गया है। हालांकि, यह शुद्ध रूप से संघीय नहीं है, बल्कि इसे “सहकारी संघवाद” (Cooperative Federalism) कहा जाता है। भारतीय संघवाद की विशेषता यह है कि यह एकल नागरिकता (Single Citizenship), मजबूत केंद्र (Strong Centre), और लचीले संविधान (Flexible Constitution) को अपनाता है।
संघवाद की अवधारणा और संघीय संरचना के आवश्यक तत्व (Concept of Federalism and Essential Elements of Federal Structure)
संघवाद (Federalism) एक ऐसी शासन प्रणाली है जिसमें सत्ता को केंद्र और राज्यों के बीच विभाजित किया जाता है। यह प्रणाली प्रशासनिक दक्षता बनाए रखते हुए क्षेत्रीय विविधताओं का सम्मान करती है। भारतीय संघवाद के प्रमुख तत्व निम्नलिखित हैं:
- संविधान में शक्तियों का विभाजन (Division of Powers in the Constitution): केंद्र और राज्यों के बीच शक्तियों का स्पष्ट विभाजन है, जो संविधान की सातवीं अनुसूची (Seventh Schedule) में सूचीबद्ध है।
- संघीय और इकाईवादी तत्वों का समावेश (Combination of Federal and Unitary Elements): संविधान संघीय ढांचे को अपनाता है लेकिन राष्ट्रीय हित में केंद्र को अधिक शक्तियां प्रदान करता है।
- स्वतंत्र न्यायपालिका (Independent Judiciary): सर्वोच्च न्यायालय (Supreme Court) संघीय विवादों का निपटारा करता है और संविधान की व्याख्या करता है।
- राज्यों की स्वायत्तता (Autonomy of States): संविधान राज्यों को उनके क्षेत्रीय मामलों में स्वायत्तता प्रदान करता है, लेकिन केंद्र की सर्वोच्चता को भी बनाए रखता है।
संघ-राज्य संबंध: कार्यपालिका और प्रशासनिक संबंध (Union-State Relations: Executive and Administrative Relations)
संघ-राज्य संबंध तीन स्तरों पर विभाजित किए गए हैं:
- विधायी संबंध (Legislative Relations): केंद्र और राज्य के बीच विधायी शक्तियों का विभाजन तीन सूचियों (Lists) में किया गया है:
- संघ सूची (Union List): केवल संसद को कानून बनाने का अधिकार (अनुच्छेद 246)।
- राज्य सूची (State List): राज्यों को कानून बनाने की शक्ति (अनुच्छेद 246)।
- समवर्ती सूची (Concurrent List): केंद्र और राज्य दोनों को कानून बनाने की अनुमति, लेकिन टकराव की स्थिति में केंद्र का कानून सर्वोच्च (अनुच्छेद 254)।
- कार्यकारी संबंध (Executive Relations): केंद्र राज्यों के प्रशासनिक कार्यों पर निगरानी रखता है और संविधान के अनुच्छेद 256 से 263 तक प्रशासनिक संबंधों का निर्धारण करता है।
- वित्तीय संबंध (Financial Relations): केंद्र और राज्यों के बीच वित्तीय शक्तियों को विभाजित किया गया है, और वित्त आयोग (Finance Commission) संसाधनों के न्यायसंगत वितरण को सुनिश्चित करता है।
संघ और राज्य के विधायी एवं कार्यकारी अधिकार (Legislative and Executive Powers of Union and State)
संविधान में संघ और राज्य सरकारों को विशिष्ट अधिकार प्रदान किए गए हैं:
अधिकार | संघ (Union) | राज्य (State) |
---|---|---|
विधायी अधिकार (Legislative Powers) | संसद को संघ सूची में वर्णित विषयों पर कानून बनाने की शक्ति। | राज्यों को राज्य सूची के विषयों पर कानून बनाने की शक्ति। |
कार्यकारी अधिकार (Executive Powers) | राष्ट्रपति केंद्र सरकार की कार्यकारी शक्ति का प्रमुख होता है। | राज्यपाल राज्य सरकार की कार्यकारी शक्ति का प्रमुख होता है। |
वित्तीय अधिकार (Financial Powers) | संघ के पास आयकर, कस्टम ड्यूटी और अन्य प्रमुख कर लगाने का अधिकार है। | राज्यों को संपत्ति कर, बिक्री कर और अन्य कर वसूलने का अधिकार है। |
आधुनिक युग में संघवाद: मुद्दे और चुनौतियाँ (Federalism in the Modern Era: Issues and Challenges)
हाल के वर्षों में, भारतीय संघवाद में कई चुनौतियाँ सामने आई हैं:
- राज्य सरकारों की वित्तीय निर्भरता (Financial Dependence of States): केंद्र द्वारा कर राजस्व का अधिकतर हिस्सा नियंत्रित करने के कारण राज्यों की वित्तीय स्वायत्तता सीमित होती है।
- राज्यपाल की भूमिका (Role of Governors): राज्यों में केंद्र सरकार द्वारा नियुक्त राज्यपालों की भूमिका विवादास्पद रही है।
- अनुच्छेद 356 का दुरुपयोग (Misuse of Article 356): केंद्र सरकार द्वारा राज्यों में राष्ट्रपति शासन (President’s Rule) लागू करने का विवाद।
- विकेंद्रीकरण (Decentralization): पंचायती राज प्रणाली (Panchayati Raj System) को सशक्त करने की आवश्यकता।
- राज्यों के अधिकारों में कटौती (Erosion of State Powers): जीएसटी (GST) जैसे केंद्रीय कर सुधारों ने राज्यों की राजस्व क्षमताओं को प्रभावित किया है।
भारतीय संघवाद लगातार विकसित हो रहा है और इसे और अधिक लोकतांत्रिक और प्रभावी बनाने के लिए सुधारों की आवश्यकता है। सहकारी संघवाद (Cooperative Federalism) और प्रतिस्पर्धात्मक संघवाद (Competitive Federalism) जैसे नए विचार अब प्रशासनिक सुधारों में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं।
Unit VIII: उभरते हुए मुद्दे (Emerging Issues)
भारतीय न्यायिक प्रणाली में समय के साथ कई नए विचार और प्रक्रियाएँ विकसित हुई हैं, जिनमें न्यायिक सक्रियता (Judicial Activism), लोक हित याचिका (Public Interest Litigation – PIL), और लोकस स्टैंडी (Locus Standi) की अवधारणा प्रमुख हैं। ये अवधारणाएँ भारत में सामाजिक न्याय को बढ़ावा देने और संवैधानिक मूल्यों की रक्षा करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं।
न्यायिक सक्रियता (Judicial Activism)
न्यायिक सक्रियता (Judicial Activism) वह प्रक्रिया है जिसमें न्यायपालिका (Judiciary) विधायिका (Legislature) और कार्यपालिका (Executive) के कार्यों की समीक्षा करके यह सुनिश्चित करती है कि वे संविधान के अनुरूप हैं। यह अवधारणा विशेष रूप से तब उभरकर आई जब न्यायालयों ने सरकार की निष्क्रियता के विरुद्ध नागरिकों के मौलिक अधिकारों की रक्षा के लिए हस्तक्षेप किया।
न्यायिक सक्रियता के प्रमुख कारण:
- सरकार द्वारा जनहित से जुड़े मामलों में निष्क्रियता।
- मौलिक अधिकारों (Fundamental Rights) का हनन।
- संवैधानिक मूल्यों की रक्षा की आवश्यकता।
- लोकतंत्र को सशक्त करने की इच्छा।
भारत में न्यायिक सक्रियता के प्रमुख उदाहरण:
- केशवानंद भारती मामला (Keshavananda Bharati Case, 1973): इस निर्णय में सर्वोच्च न्यायालय ने संविधान के मूल ढांचे (Basic Structure) की अवधारणा दी।
- मनोज सिन्हा बनाम भारत सरकार (Manoj Sinha v. Union of India): इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने पर्यावरण संरक्षण को मौलिक अधिकारों का हिस्सा माना।
- विशाखा मामला (Vishaka v. State of Rajasthan, 1997): कार्यस्थल पर महिलाओं के यौन उत्पीड़न के खिलाफ दिशानिर्देश जारी किए गए।
न्यायिक सक्रियता के प्रभाव:
- सामाजिक न्याय को बढ़ावा।
- सरकार की जवाबदेही बढ़ी।
- लोकतांत्रिक मूल्यों की सुरक्षा।
- लेकिन कभी-कभी न्यायिक अतिक्रमण (Judicial Overreach) की समस्या उत्पन्न हो सकती है।
लोक हित याचिका (Public Interest Litigation – PIL)
लोक हित याचिका (PIL) एक ऐसी कानूनी प्रक्रिया है जिसके माध्यम से कोई भी नागरिक या संगठन जनहित के मुद्दों पर अदालत का दरवाजा खटखटा सकता है। यह परंपरागत लोकस स्टैंडी (Locus Standi) सिद्धांत को विस्तारित करता है, ताकि वे लोग भी न्यायालय जा सकें जो व्यक्तिगत रूप से प्रभावित नहीं हुए हैं, लेकिन समाज के किसी बड़े हित को लेकर चिंतित हैं।
लोक हित याचिका की विशेषताएँ:
- कोई भी व्यक्ति, भले ही वह सीधे प्रभावित न हो, याचिका दायर कर सकता है।
- सरल प्रक्रिया – किसी भी न्यायालय को पत्र भेजकर भी याचिका दायर की जा सकती है।
- सामाजिक न्याय और मानवाधिकारों की रक्षा के लिए एक प्रभावी साधन।
भारत में लोक हित याचिका के महत्वपूर्ण मामले:
- हुसैनआरा खातून बनाम बिहार राज्य (Hussainara Khatoon v. State of Bihar, 1979): इस मामले में जेल सुधारों पर निर्णय दिया गया।
- एम.सी. मेहता बनाम भारत संघ (M.C. Mehta v. Union of India, 1986): इस मामले में गंगा नदी की सफाई पर आदेश जारी किए गए।
- श्रमजीवी संगठन बनाम भारत सरकार (People’s Union for Democratic Rights v. Union of India, 1982): इस मामले में बाल श्रम के खिलाफ फैसला सुनाया गया।
लोक हित याचिका के लाभ:
- गरीब और वंचित वर्गों के अधिकारों की रक्षा।
- सरकार और प्रशासन की जवाबदेही बढ़ी।
- पर्यावरण और मानवाधिकारों के संरक्षण में सहायक।
लोक हित याचिका की चुनौतियाँ:
- कुछ मामलों में इसका दुरुपयोग किया जाता है।
- अदालतों पर अनावश्यक मुकदमों का बोझ बढ़ सकता है।
- राजनीतिक और निजी स्वार्थों के लिए PIL का दुरुपयोग।
लोकस स्टैंडी (Locus Standi) की अवधारणा
लोकस स्टैंडी (Locus Standi) का अर्थ है – किसी व्यक्ति को न्यायालय में याचिका दायर करने का अधिकार। परंपरागत रूप से, केवल वही व्यक्ति न्यायालय में जा सकता था जिसे किसी विशेष कार्यवाही से प्रत्यक्ष हानि हुई हो। लेकिन लोक हित याचिका (PIL) की शुरुआत के बाद इस सिद्धांत को लचीला बना दिया गया।
लोकस स्टैंडी का पारंपरिक दृष्टिकोण:
- केवल वही व्यक्ति याचिका दायर कर सकता था जो सीधे प्रभावित हुआ हो।
- निजी विवादों तक सीमित था।
लोकस स्टैंडी में बदलाव:
लोकस स्टैंडी की परिभाषा को व्यापक बनाया गया ताकि सार्वजनिक मुद्दों पर भी नागरिक न्यायालय में जा सकें। PIL के कारण, अब न्यायालय किसी भी सामाजिक अन्याय पर स्वतः संज्ञान लेकर मामले की सुनवाई कर सकता है।
लोकस स्टैंडी और न्यायिक सक्रियता के बीच संबंध:
- लोकस स्टैंडी के विस्तार ने न्यायिक सक्रियता को बढ़ावा दिया।
- PIL के माध्यम से आम नागरिक भी प्रशासन की खामियों को चुनौती दे सकता है।
- लोकतांत्रिक प्रणाली को अधिक पारदर्शी और जवाबदेह बनाने में योगदान दिया।
न्यायिक सक्रियता, लोक हित याचिका, और लोकस स्टैंडी भारतीय न्याय व्यवस्था के ऐसे महत्वपूर्ण तत्व बन चुके हैं जिन्होंने सामाजिक न्याय और संवैधानिक मूल्यों की रक्षा को सुनिश्चित किया है। हालाँकि, इनका संतुलित और जिम्मेदार उपयोग भी आवश्यक है, ताकि न्यायपालिका की विश्वसनीयता बनी रहे और न्यायिक संसाधनों का उचित उपयोग हो सके।
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